बुधवार, 23 सितंबर 2009

बाबा की बकइयाँ

चीन ने पूरी दुनिया को अपने अधिकार में किया हुआ है। कभी वह धरती की सीमाएँ लाँघता है, कभी बाज़ारों में घुसता है तो कभी अखबारों के मुखपृष्ठों पर। अब आज का ही समाचार पत्र देखें, मुखपृष्ठ पर बाबा हान सूशो बकइयाँ खड़े हैं। चीन के इस बुज़ुर्ग का कहना है कि बकइयाँ चलना स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है। बहुत से लोग तो अभी तक बकइयाँ शब्द को भी भूल चुके होंगे। बच्चे भी आजकल बकइयाँ कहाँ चलते हैं वे तो सीधे वॉकर में दौड़ते हैं। बस यहीं से शुरू होती है सारी गड़बड़। वाकर से कार और कार से बीमार।

पिछले चौदह वर्षों से लगातार शोध में लगे बहत्तर वर्षीय बाबा सूशो कहते हैं कि खड़े होकर चलना बहुत से रोगों को दावत देता है। इससे बचने के लिए मनुष्य को दिन में कुछ पल पशुओं की तरह चलना आवश्यक है। वे स्वयं भी इस नियम का सख्ती से पालन करते हैं और रोज सुबह उन्हें बीजिंग के बेईहाई पार्क में शांत मुद्रा में झुके, दस्ताने पहने हाथों को धरती पर रखते, कूल्हों को आकाश की ओर सीधा उठाए चलते देखा जा सकता है। वे इस कला की शिक्षा भी देते हैं। उनका कहना है कि बकइयाँ चलने के उनके इस योग शास्त्र में वनमानुष, हाथी और कंगारू जैसे पशुओं के चलने की मुद्राओं को शामिल किया गया है। इस कला के विकास की आवश्यकता उन्हें तब पड़ी जब उनकी तमाम बीमारियों के सामने डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। रीढ़ और दिल के कष्ट, माँसपेशियों के दर्द तथा उच्च-रक्तचाप की तकलीफों का सामना करने के लिए बाबा सूशो ने बढ़ई की अपनी लगी-लगाई नौकरी छोड़ी और स्वास्थ्य के लिए कमर कसी। शाओलिन कुंफ़ू में पशुओं की कुछ मुद्राओं से प्रभावित होकर उन्होंने पशुओं की तरह चलने की इस कला का विकास किया, जिसमें पाँच पशुओं की चालों को आधार बनाया और अपने कष्टों से छुटकारा पाया। ज़ाहिर है बहुत से लोग उनसे प्रेरणा लेकर बिना दवाओं के ठीक होना चाहते हैं। उनका दावा है कि इससे रीढ़ की हड्डी और रक्तसंचार में अकल्पनीय सुधार आता है जिसके कारण एक सप्ताह में ही रोगी की दवाएँ की कम होने लगती है।

कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है। मानव जीवन का प्रारंभ बंदर से हुआ था। धीरे धीरे उसने दो पैरों पर खड़े रहना सीखा, पूँछ गायब हुई और वनमानुष इनसान बन गया। समय, संस्कृति और सभ्यता के साथ उसके रहन सहन और जीवन में परिवर्तन आए और अब विकास के बनावटी जीवन से परेशान बाबा सूशो, दुनिया को फिर से चौपाया बनने की राह दिखा रहे हैं। आ गए न घूम फिर के फिर वापस वहीं? स्वस्थ रहने के लिए लोग क्या नहीं करते? चौपायों की तरह चलना तो फिर आसान बात है। आशा रखें कि इस सबके बावजूद मानव, मानव ही बना रहेगा और पूँछ फिर से नहीं निकलेगी।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

चक्कर नौ सौ निन्यानबे का

रेल चली भई! रेल
यों तो निन्यानबे का चक्कर मुहावरों में बहुत पहले से चला आ रहा है पर इस बार के चक्कर में सौ और जुड़ गए तो धक्का ज़ोर का लगा। धक्के में और ज़ोर लगाया चीनी भाषा ने जिसमें नौ को जियु कहते हैं और इसका अर्थ होता है दीर्घकालीन। इसके चलते हज़ारों लोगों ने शुभकार्यों के लिए ९ सितंबर ०९ के दिन का चयन किया। भारतीय ज्योतिषियों की माने तो बुधवार ९ सितंबर की रात ९ बजकर ९ मिनट और ९ सैकेंड पर शनि के राशि परिवर्तन से एक दुर्लभ संयोग के साथ अभिजीत मुहूर्त था जो कार्यों की सफलता के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है।

पता नहीं चीनी के जियु से प्रभावित होकर या भारतीय ज्योतिष से दुबई में नौ सितंबर वर्ष दो हज़ार नौ में रात नौ बजकर नौ मिनट और नौ सेकेंड पर मेट्रो का उद्घाटन हुआ। यह इमारात के लिए एक बड़ा धमाका था। राजे महाराजे स्टेशन पर उपस्थित थे, टीवी पर लाइव कमेंट्री जारी थी और इसके निर्माण में भाग लेने वाले देशी विदेशी लोगों के चेहरों की चमक देखते ही बनती थी। चमक के प्रतिबिम्ब से उद्घोषकों और आम लोग भी अछूते नहीं बचे थे। हर व्यक्ति या तो उद्घाटन-स्थल पर था या फिर टीवी की लाइव कमेंट्री पर। इतना हंगामा इसलिए भी था कि इमारात की हवा ने आज तक कभी रेलगाड़ी देखी ही नहीं है। यह केवल मेट्रो ही नहीं इस देश की पहली रेलगाड़ी भी है। ७० किलोमीटर लंबे मैगनेटिक ट्रैक पर बिना ड्राइवर के चलने वाली यह मेट्रो दुनिया का सबसे बड़ा स्वचालित रेल तंत्र (ओटोमेटेड रेल सिस्टम) है। इस रेल में प्रति घंटे लगभग २७,००० लोग यात्रा करेंगे। हर ट्रेन में ५ डिब्बे रखे गए हैं जिसमें ६४३ लोगों के यात्रा करने की सुविधा है। रेल में मोबाइल और लैपटॉप का प्रयोग किया जा सकेगा, लेकिन इसमें खाना-पीना और पालतू जानवर ले जाना मना है। रेल सुबह छह बजे से रात के बारह बजे तक ९० किलो मीटर प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ेगी। इसके एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की दूरी डेढ़ किलोमीटर रखी गई है और फिलहाल इसकी एक लाइन ही चालू हुई है। अनुमान है कि दुबई के ३० प्रतिशत लोग इस रेल को अपने जीवन का अंग बनाएँगे। रेल के साथ-साथ हर स्टेशन पर रेल-यात्रियों को समीपस्थ स्थानों तक पहुँचाने के लिए सहयोग करती ७७८ नई चमचमाती बसें भी सड़क पर उतर आई हैं। रेल और बसें तो जगमग हैं ही, मेट्रो के स्टेशनों को भी सजाने में कोई कसर नहीं रखी गई है।

प्रमाण के लिए देखें यह बर्जुमान स्टेशन, जो स्टेशन कम और थियेटर ज्यादा मालूम होता है। यहाँ की रंगीन रौशनियों के झरने और छत से लटकते फानूसों को देखते किसी की रेल छूट जाए तो कोई अचरज की बात नहीं। इमारात को कार कल्चर वाला देश कहा जाता है। ५ साल पहले यहाँ न रेल थी न बस और न साइकिलें या और कोई वाहन। रेल और बसों के इस धमाकेदार अवतरण के बाद निश्चित तौर पर दुबई के रूप रंग के साथ सड़क संस्कृति पूरी तरह बदल जानेवाली है। कहा जाता है कि अगर आप पाँच साल से दुबई नहीं आए हैं तो रास्तों को पहचानना आपके बस की बात नहीं। इस रेल और बस क्रांति के बाद सिर्फ रास्ते ही नहीं दुबई की पूरी तस्वीर ही बदल जाने वाली है।

(दुबई मेट्रो में यात्रा करना चाहें तो यहाँ पहुँचें, गल्फ़ न्यूज़ की अर्चना शंकर आप की प्रतीक्षा में हैं।)

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

मुट्ठी में मौसम


ऊपर वाले ने इन्सान को छोटी सी मुट्ठी दी है और वैसा ही छोटा सा दिल। लेकिन इस छोटे से दिल में बड़ी से बड़ी असंभव और अज्ञात चीज़ को मुट्ठी में समेट लेने की इच्छा समय के साथ बढ़ती ही रही है। कभी ज़मीन पर अधिकार जमा लेने की इच्छा, कभी सागर को पार करने की, कभी पर्वत लांघने की, तो कभी नदियों को बाँधने की। वातानुकूलन द्वारा हम भवनों के अंदर के मौसम को भी नियंत्रित कर चुके है। विज्ञान की नई खोजों और तकनीक ने सबकुछ मुट्टी में कर लेने की इंसान की इस इच्छा का खूब साथ निभाया है। इसी क्रम में खुले आसमान के नीचे बर्फ और बारिश को नियंत्रित करने वाले कुछ प्रयोग जल्दी ही रूस के आम नागरिक के जीवन का हिस्सा हो जानेवाले हैं।

जिन्होंने मॉस्को की सर्दियाँ देखी हैं वे क्रेमलिन के सुनहरे गुंबदों पर झरती सफ़ेद बर्फ के सौंदर्य को भूले नहीं होंगे। किसी ग्रीक देवता की तरह सफेद आवरण में लिपटा इस शहर का यह पवित्र शारदीय सौन्दर्य एक नवीन योजना के अंतर्गत इतिहास में खो जाने वाला है। मास्को के नए नगरपौर, यूरी लुज़कोव ने नगर को बर्फ से मुक्त करने की योजना पर काम शुरू कर दिया है। श्रीमान लुज़कोव का कहना है कि बर्फ को नगर की सीमा से बाहर रहना चाहिए। अगर ऐसा हो सका तो शहर से लगे ग्रामीण क्षेत्रों को अधिक नमी मिलेगी जो कृषि के लिए बेहतर साबित होगी। दूसरी ओर शहर को बर्फ से मुक्त रखकर बहुत-सी समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकेगी। रूस में क्लाउड-सीडिंग तकनीक द्वारा मॉस्को का आसमान साफ़ रखने के प्रयोग पहले से किए जाते रहे हैं और इसमें काफ़ी सफलता मिली है। लुज़कोव की इस योजना के अनुसार जब भी सर्दियों के सुहाने मौसम में रूस के इस महानगर पर बर्फ के बादलों को मँडराते हुए पाया जाएगा, उन्हें तकनीक के डंडे से मार भगाया जाएगा। वे कहते हैं कि नगरवासियो को इससे बहुत से लाभ मिलेंगे। घर को गर्म रखने के खर्च में कमी आएगी, सड़कों की सफ़ाई नहीं करनी पड़ेगी और यातायात समान्य रूप से जारी रहेगा। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि बादल भगाने की इस परियोजना से नगर के बाहरी क्षेत्रों को अतिवृष्टि का समना करना पड़ सकता है। मौसम विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक इस परियोजना को व्यवहार में नहीं लाया जाता इसके परिणामों के विषय में पहले से भविष्यवाणी करना संभव नहीं है, फिर भी अनपेक्षित परिणामों के लिए कमर कसकर रहने की जरूरत है।

कुल मिलाकर यह कि छोटे से दिल में बड़ा सा सपना पालना तो आसान है पर उसे मुट्ठी में लेने से पहले सावधानी ज़रूर बरतनी चाहिए।